मीरा बाई कौन थी? इतिहास | Meera Bai kon thi itihas

मीरा बाई कौन थी? इतिहास: Meera Bai kon thi itihas मीरा बाई की जन्म नागौर जिले के कुड़की (मेड़ता) में सन् 1498 ई पूर्व हुआ था। इनके पिता राव रत्नसिंह थे।

Meera Bai kon thi itihas: मेरा नमस्कार ! आज हम श्री कृष्ण भगवान की परम लीलाओं की एकमात्र हिस्सेदार रहनी वाली भक्त माता मीरा बाई कौन थी? मीरा बाई का इतिहास के बारे में जानने वाले है। मीरा थी तो श्री भक्त लेकिन उसने अपनी भक्ती और श्रंगार से कई सामाजिक कुरीतियां को दूर किया है। जिससे समाज में आज भी उनके आदर्शों और गुणों की पूजा की जाती है। मीरा की भक्ति अगणीय है और ये साक्षात देवी का अवतार है। 


Meera Bai kon thi itihas
मीरा बाई का इतिहास

मीरा बाई कौन थी?:

मीरा बाई - श्री भगवान कृष्ण की परम भक्त, शिरोमणि माता मीरा बाई कुड़की पाली की रहने वाली थी। मीरा बचपन से कृष्ण भगवान की भक्ति में रुचि लेने लगी थी और श्री कृष्ण की अन्यन भक्त रही थी। बचपन में मीरा अपना ज्यादा समय श्री कृष्ण भगवान के मंदिर में ही व्यतीत करती थी। वहां मीरा श्री कृष्ण की प्रतिमा के सामने कई घंटे बैठना और उसे निहारना, मीरा बचपन से करती आ रही थी। एक बार मीरा के प्रभु गिरधर की प्रतिमा को आचार्य जी वन्दावन ले जाने का प्रयत्न करते है और मीरा को गिरधर की प्रतिमा नहीं दिखाई देती है, मीरा की तबियत अचानक से खराब हो जाती है और बार-बार अपने प्रभु गिरधर को पुकारती है। लेकिन आचार्य जी को रास्ते में जाते समय ही संकेत मिलते है मीरा अपने गिरधर को पुकार रही है, तभी आचार्य जी वापस मीरा के यहाँ जाते है, प्रभु की प्रतिमा देते ही मीरा ठीक हो जाती है। तब उनके दादाजी को भी यह बात समझ में आती है कि मीरा से अपने प्रभु गिरधर श्री कृष्ण को कभी अलग नहीं किया जा सकता है।


मीरा बाई का परिचय:

  1. नाम- मीराँ
  2. जन्म- सन 1498 ई
  3. जन्म का स्थान- कुड़की जो मेड़ता में 
  4. विवाह- सिसोदिया परिवार में
  5. पति का नाम- भोजराज 
  6. पिता का नाम- राव रत्नसिंह
  7. माता- वीर कुमारी
  8. दादा जी- राव दूदासिंह
  9. गुरु- रविदास, रामानंद जी
  10. कार्यशैली- श्री कृष्ण भक्त, कवयित्री
  11. रचनाएँ- भक्ति के स्फुट पदों की 
  12. प्रसिद्धि- श्री कृष्ण भगवान अनन्य भक्त
  13. जीवन- 1498-1546 भक्त
  14. मृत्यु- सन 1557, द्वारीका में


मीरा बाई का इतिहास:

मीरा बाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था? श्री कृष्ण भगवान की परम भक्त, सती माता मीरा बाई की जन्म नागौर जिले के कुड़की (मेड़ता) में सन् 1498 ई पूर्व हुआ था। इनके पिता राव रत्नसिंह और माता वीर कुमारी थी। इनके दादा राव दूदासिंह थे। रत्नसिंह राव दूदा के चौथे पुत्र थे। मीरा जब दो वर्ष की थी तब ही उनकी माता वीर कुमारी का देहांत हो गया। अपनी माता का देहांत होने के बाद मीरा अपने दादा के पास रहने लगी। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भी यही से प्राप्त की। राव दूदा उद्धार और धार्मिक नीति के कड़े पक्षधर थे। इसका प्रभाव मीरा पर भी पूर्णरूप से पड़ा। मीरा ने अपनी शिक्षा रविदास और रामानंद जी के नेतृत्व में पूरी की थी। 


मीरा बाई का विवाह किसके साथ हुआ था:

उदयपुर के सिसोदिया वंश के प्रतापी राजा महाराणा सांगा ने सन 1516 ई में राव रत्नसिंह को एक प्रस्ताव भेजा। जिसमें महाराणा सांगा के पुत्र महाराणा भोजराज का विवाह मीरा बाई के साथ करनी की ख्याति लिखी हुई थी। राव रत्नसिंह और उसके भाई ने इस बात पर विचार-विमर्श किया और महाराणा सांगा को विवाह के लिए हां कर दिया।

मीरा इस विवाह के लिए राजी नहीं थी पर दोनों भाइयों ने मीरा समझाया तब मीरा विवाह करने को तैयार हुई। दोनों का विवाह बड़े ही धूमधाम से सम्पन्न हुआ। मीरा को अपने ससुराल में सबसे पहले कुल दैवी की पूजा करने को कहा गया था। लेकिन मीरा सख्त ही मना कर देती है और कहती है कि मैं अपने गिरधर के अलावा किसी की भी दैवी देवताओं की पूजा नहीं करूँगी। 

तभी कुल दैवी की मंदिर में साक्षात भगवान श्री कृष्ण गिरधर के रूप में प्रकट होते है तब मीरा पूजा करना आरंभ करती है। धीरे-धीरे मीरा की भक्ति राजा भोजराज को भी प्रभावित करती। तभी मीरा के लिए इन्होंने मेवाड में एक मंदिर बनाया। कुछ समय बाद इनको दुश्मनो द्वारा विष दे दिया जाता है। जिससे इनकी की मृत्यु हो जाती है। 

उस समय सती प्रथा चली आ रही थी, जिसमें पति की मृत्यु होने पर विवाहित पत्नी को भी उसके साथ अग्नि में जलना पड़ता था। मीरा को भी अपनी पति भोजराज की मृत्यु होने पर उसके साथ सती प्रथा करने को कहा गया, लेकिन मीरा मना कर दिया था और कहा कि साक्षात मेरे प्रभु भी आ जाए तो भी मैं अग्नि में प्रवेश नहीं करूँगी क्योंकि मेरे पति तो गिरधर श्री कृष्ण अभी जीवित है। बाद में राणा सांगा की आज्ञा लेकर मीरा महल छोड़कर चली जाती है और द्वारका के लिए प्रस्थान करती।

कुछ ही दिन पश्चात मेवाड पर मुगलो का आक्रमण होता है, जिसमें मेवाड के राणा सांगा सहित कई राजा मारे जाते है और रानीयाँ जोहर कर लेती है। मीरा के चाहने वाले लोगों मीरा को वापस मेवाड बुलाने का कष्ट करते है। मीरा वापस मेवाड आ जाती है। मेवाड में फिर से मीरा बाई पर आक्रमण होता और जहर भी दिया जाता है। लेकिन कोई भी मीरा का बाल भी भाँका नहीं कर सका क्योंकि मीरा के साथ उसके प्रभु जो थे।


मीरा बाई का साहित्य कैसा था:

भक्त माता मीरा बाई का साहित्य दो ख्याति पर आधारित था। एक भगवान श्री कृष्ण की परम भक्त और दूसरा ये संसार की महान और सर्वोपरि कवयित्री थी। मीरा भजन-कीर्तन में महिर थी और ये भजन के साथ-साथ गाने भी गाती थी। ये सड़कों, कस्बों और मंदिरों हर जगह अपने गिरधर की याद में नाचने और गाने के साथ मग्न रहती थी। इन्हें हिंदी भाषा का भी सर्वश्रेष्ठ ज्ञान था। हिन्दी में इन्होंने कई रचनाओं, पदावली, काव्यो और भाषाओं का वर्णन किया है।


मीरा बाई की काव्यशैल क्या थी:

माता मीरा बाई के हिन्दी शैली में दिए गए तथ्यों को आज भी याद किया जाता है। मध्यकालीन जितने भक्त हुए है उन सभी ने मीरा द्वारा दी गई रचनाओं का दोहन किया है। मीरा की प्रमुख रचनाएँ राग गोविन्द, गीत गोविन्द टीक, नरसी जी रो मायरो, सोरठा के पद आदि है और काव्य भाषा गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, ब्रजभाषा आदि थी। 


मीरा की मृत्यु कैसे हुई थी:

घर वालों के भूरे बर्ताव से मीरा वृंदावन आ गई। उसके बाद मीरा अपने जीवन के अंतिम दिनों द्वारका चली गई आ गयी। वहीं पर श्री कृष्ण अपने प्रभु गिरधर की प्रतिमा में मग्न हो गई और उसके चारों ओर लिपट कर उसमें समाहित हो गयी। उसी स्थान सन् 1557 ई में द्वारका में उनका देहांत हो गया। 


मीरा बाई का मंदिर कहाँ पर स्थित है:

मीरा का पहला मंदिर उसके पति भोजराज ने मेवाड मे बनाया था। बाद में उनकी मृत्यु पश्चात एक मंदिर द्वारका में बनाया गया था जहां पहले भगवान श्री कृष्ण जी निवास करते थे। मीरा बाई की समाधि कहां है? मीरा गिरधर की प्रतिमा पर लिपटी हुई थी और कृष्ण की परम भक्त थी इसलिए इनकी समाधि भी द्वारीका में ही बनाई गई थी।


मीरा बाई की भक्ति किस प्रकार की थी:

माता मीरा बाई भक्तिकाल की गायकी थी। भगवान श्री कृष्ण की कृपा से मीरा की भक्ति परम पार और अमूल्य है। मीरा जहां भी जाती उसे देवी जैसे आदर्श मिलते थे। वह अपना अधिकांश समय भजन-कीर्तन, भक्त संत और साधुओ के साथ व्यतीत करती थी। ऐसी महान विरांगणा को मे शत-शत नमन।

इस प्रकार माता मीरा बाई ने अपना समस्त पूरा जीवन भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया। मीरा ने अन्ध विश्वास को दूर किया और तमाम लोग भक्ति के लिए प्रेरित किया। इन्होंने भक्ति के साथ-साथ भाषा का भी ज्ञान कराया।


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